कब चाहा..
की साथ उड़ सकूँ मैं,
चाहत है..
सिर्फ़ इतनी,
की ‘ तुम ‘
आँखें खोलो और देखो,
किसी का सपना हो ‘ तुम ‘
किसी की कोशिशें हो ‘ तुम ‘
किसी की मंज़िल हो ‘ तुम ‘
किसी का आपना हो ‘तुम‘
कोई है, जो दूर से…
बहूत दूर से,
खुद को ‘तुम‘ मे
तलाशता हुया, मैं को तरसता है !
आँखें खोलो ‘परी ‘
‘ मैं ‘ की बस यही चाहत है..
तुम मे खो कर..
पाना ‘ हम ‘ को !
आँखे खोलो ‘परी‘..
और दे दो ‘मैं‘ को उसकी पहचान…
‘हम तुम‘
देखो ना शायद लम्हो की भी गुज़ारिश है ये…